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Sunday, May 30, 2010

तुम चाहो हो जब ये दूरी


क्यों नहीं हुआ तुम्हारा-मेरा ये मेल
क्यों रह गया ये बनकर बस इक खेल
हाँ थी मैं सिमटी बदली, भरे नीर
और तुम थे गगन नील, धीर, गंभीर



तुम चाहो हो जब ये दूरी
तो होगी चाह तुम्हारी पूरी
हाँ! कर लूंगी होंठ ये खामोश
नाचूंगी, झुमूंगी लिए पूरा जोश




बह जायेंगे गर ये आंसू
कह दूँगी उड़े तिनके हर सू
मिट जायेगा जो ये कजरा
कह दूँगी न सजाया ये कमरा



केश अगर ये खुल जायेंगे
बदली से जो लहरायेंगे
खुल जायेगा जो गजरे का घेरा
कहूँगी, है नहीं उँगलियों को फेरा



हाथ मेरे जो काँप उठेंगे
चूनर उनको ढांप रहेंगे
और कभी जो ये कदम लडखडाये
दूंगी सारा दोष पत्थर पर लगाये



 कि तुम्हे न देख पायेगी ये चन्द्रिका
सो कर लेगी ओट किसी बदली का
बस तुम सदैव मुस्काते रहना
मुस्कान तुम्हारी है मेरा गहना


11:18pm, 25/4/10

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