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Thursday, May 15, 2014

prem ki paribhasha प्रेम की परिभाषा


मुझसे न पूछना, है क्या प्रेम की परिभाषा
इसका उदगम, इसके प्रवाह का मार्ग या दशा


मैं नही जानती इसकी गूढ़ बातों का रहस्य
ना सोचो, मुझे नही ज्ञान से कोई भी वैमनस्य


बस इतना हूँ जानती स्नेह से भरा है मन
ख़ुशी देने की चाहत में करती हूँ हर जतन


मूढ़मति मैं, कर जाती हूँ आधिक्य कई बार
स्वयं संग दूजे को पहुंचा जाती हूँ पीर अपार


बस इतना है कि सोचों में हो रहते दिन रैन
मन की दूरी नही देती है पल भर को भी चैन


बिना तेरे साथ, सारे सुख संसार के तुच्छ लगे
नेह भरे भीगे वचन सुनकर हृदय में उमंग जगे


जाने कैसा है बंधन, जो बंधी बिन डोर हूँ
कुछ सूझे न, चाहूँ न, यादों में तेरी गुम हूँ


जाने कैसा ये स्पंदन नसों में तरंगित होता है
अचंभित हूँ कि न कभी सुना ऐसा भी होता है


नही जानती इस भाव की गूढ़ता का रहस्य क्या है
है सुना मैंने लोगों से कि इसी को प्रेम कहा जाता है

3.53pm, 6 may, 14

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